लोकसभा चुनाव में हार की 10 वजहें, क्या राहुल ने खुद चुनी हैं मुश्किलें?

राहुल गांधी दलितों के लिए दिल में खास जगह रखते हैं. वह बराबरी की बात करते हैं, गैर सियासी लोगों को सियायत में आगे लाने की वकालत करते हैं, राजनीति से पैसा बनाने वालों को पसंद नहीं करते और सियासत में झूठ बोलना गुनाह मानते हैं.

राहुल गांधी सियासत में जिम्मेदारी को दिल से निभाने के पक्षधर हैं. वंशवाद राहुल को भाता नहीं, गरीब को आगे बढ़ाना चाहते हैं. जवाबदेही चाहते हैं. पार्टी में लोकतंत्र चाहते हैं, इसलिए एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में चुनाव करवाते हैं और 2014 में लोकसभा टिकट के लिए उम्मीदवारों के बीच चुनाव कराने का पायलट प्रोजेक्ट लाते हैं.

ये सब बातें ऐसी हैं, जिनको जानकर लगता है कि ऐसा ही आदमी तो हिंदुस्तान को चाहिए. फिर सियासत में राहुल असफल क्यों दिखते हैं? सियासी धरातल पर राहुल के फॉर्मूले क्यों धड़ाम हो जाते हैं? आखिर क्यों आदर्शवाद जमीनी हकीकत के सामने दम तोड़ देता है? कांग्रेस के नेता जो खुलकर नहीं कह पाते उसकी तफसील से पड़ताल करने पर 10 बड़ी बातें सामने आती हैं.

1. पार्टी में लोकतंत्र की बात करने वाले राहुल गांधी जब एनएसयूआई, यूथ कांग्रेस और पार्टी के उम्मीदवार के लिए चुनाव कराते हैं तो विपक्षी पार्टी से लड़ाई लड़ने से पहले ही पार्टी के भीतर की लड़ाई पार्टी को कमजोर कर देती है. इसलिए एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस की कमजोर हालत किसी से छिपी नहीं है.

2. गैर राजनीतिक लोगों को सियासत में आगे लाने की वकालत तब भारी पड़ती है, जब राहुल गांधी सियासी फैसलों में उनको तरजीह देते हैं. जैसे पार्टी के नेताओं की सलाह तो ली जाती है लेकिन रोजमर्रा के सियासी फैसलों में राहुल के पीए की भूमिका में रहने वाले गैर सियासी लोग प्रभावशाली हो जाते हैं, फिर जब मामला बिगड़ता है तो नेताओं को संभालने का जिम्मा दिया जाता है.

3. राहुल गांधी नेताओं से बैठकों में और रैलियों में मिलते हैं, लेकिन उनका उठना बैठना, यात्रा करना सब अपने पीए जैसे लोगों के साथ होता है. राहुल के पीए की भूमिका में कौशल, अलंकार, सचिन राव, निखिल अल्वा और प्रशासनिक सेवा से आए के राजू हैं. जो विदेशों से बेहतर शिक्षा लेकर आए हैं. इंसान भी बेहतर हैं, लेकिन सियासी समझ-बूझ और जमीनी हकीकत से दूर हैं पर राहुल के चहेते हैं.

उदाहरण के तौर पर लोकसभा चुनावों की तारीखों से पहले तक मीडिया की जिम्मेदारी रणदीप सुरजेवाला के कंधों पर थी, लेकिन चुनावों के दौरान राहुल के साक्षात्कार का जिम्मा निखिल अल्वा को सौंप दिया गया. निखिल को अचानक इतना बड़ा जिम्मा मिला, उनकी समझ का अंदाजा इसी बात से लगाइए कि उन्होंने राहुल की तुलना हाफिज सईद से करने वाले घोर कांग्रेस विरोधी चैनल से साक्षात्कार करवा दिया.

ऐसा ही उदाहरण अमेठी का है, जहां राहुल गांधी ने साल 2009 के बाद सोनिया गांधी की टीम की छुट्टी करके अपनी टीम बनाई. साल 2014 के चुनावों में आखिर में मजबूर होकर सोनिया की टीम का सहारा लिया और किसी तरह जीत गए, लेकिन टीम राहुल ने साल 2019 में अमेठी में भी राहुल की लुटिया डुबो ही दी.

4. राहुल प्रोफेशनल्स और डेटा पर भी खूब यकीन रखते हैं. लेकिन कांग्रेस विचारधारा शायद पीछे छूट जाती है. राहुल के ये करीबी हों या राहुल के प्रभाव से कांग्रेस के डेटा विभाग के चेयरमैन प्रवीण चक्रवर्ती सभी राहुल को बताते रहे कि मोदी किसी सूरत में वो अंकगणित नहीं पा सकेंगे, जिससे वो दोबारा पीएम बन पाएं. राहुल भी उन पर आंख मूंद कर भरोसा करते गए और पहले ऑफ रिकॉर्ड फिर खुलकर यही बोलने भी लगे.

दरअसल, राहुल दिल से ऐसा मानकर चलने लगे. डेटा विभाग ने शक्ति एप के जरिए जो बूथ लेवल के आंकड़े दिए, उसके आधार पर जो परिणामों का अनुमान लगाया सब उसके उलट रहा.

5. राहुल के दफ्तर में जो पीए लोगों की टीम है, माना जाता है कि सभी नहीं पर ज्यादातर वामपंथी सोच के हैं. इसलिए राहुल का मंदिर-मंदिर जाना, प्रो मुस्लिम पार्टी की छवि तोड़ने की कोशिश होना तब संभव हुआ, जब 2014 में बुरी हार हुई. कांग्रेस नेताओं के दबाव के चलते आखिरकार ये संभव हो पाया. इसलिए पार्टी के नेता कहते हैं कि, राहुल को इंदिरा गांधी का सेक्युलरिज्म अपनाना चाहिए ना कि वामपंथ का. वरना जो हाल वामपंथी राजनीति का हुआ, वही कांग्रेस का हो जाएगा. वैसे खाली राहुल ही नहीं प्रियंका गांधी के पीए की भूमिका निभाने वाले भी जेएनयू से आने वाले वामपंथी संदीप सिंह ही हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वो मनमोहन सिंह को पीएम रहते काले झंडे दिखा चुके हैं. कांग्रेस नेताओं का मानना है कि राहुल बेशक युवाओं को अपने साथ रखें लेकिन वो राजनैतिक होने चाहिए.

6. आदर्शवाद और सियासी हकीकत में राहुल गांधी ने अकसर आदर्शवाद को चुना, जिसका खामियाजा पार्टी को उठाना पड़ा. आदर्शवाद इस बात का कि कोई पैसे वाला है, सक्षम है और हैसियत वाला है सिर्फ इसलिए वो बढ़िया नेता नहीं हो सकता और जो फटेहाल या सादगी दिखाता है वही बेहतर नेता हो सकता है. उदाहरण के तौर पर मधुसूदन मिस्त्री, दीपक बावरिया, जैसे नेता राहुल को पसंद हैं. ये सवाल राहुल के करीबी मिलिंद देवड़ा पहले ही उठा चुके हैं.

7. एक बड़ा सवाल और आता है कि राहुल अपने नीचे तो दलित, वंचित, गरीब नेताओं को आगे लाने के पक्षधर हैं, लेकिन जब बात दोस्ती की आती है तो ज्यादातर या तो बड़े नेताओं के बेटे-बेटी होते हैं या राजा-महाराजा. उदाहरण के तौर पर मिलिंद देवड़ा, महाराज जितेंद्र सिंह, महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, उमर अब्दुल्ला, वगैरह वगैरह.

8. राहुल और उनकी टीम अंग्रेजीदां है. चीजें अंग्रेजी में तय होती हैं. अंग्रेजी में सोची जाती हैं फिर जरूरत के हिसाब से उसका हिंदीकरण होता है. इसका खामियाजा हिंदी पट्टी की सियासत में हुआ है. यहां तक कि बड़े नेता भी इसको भांपते हुए कोशिश में रहते हैं कि उसकी खबर या बात किसी अंग्रेजी प्लेटफार्म पर आ जाए, भले ही उसकी टीआरपी या सर्कुलेशन बहुत कम ही क्यों ना हो? उसको लगता है उसकी बात आलाकमान तक ऐसे ही पहुंचेगी. तब वो आम जनता या हिंदी पट्टी का ख्याल ही नहीं रखता.

9. कांग्रेस नेता मानते हैं कि राहुल नेताओं के प्रति अपनी पसंद नापसंद जाहिर कर देते हैं. जबकि अध्यक्ष को अपनी पसंद नापसंद को जाहिर ना करते हुए सबकी प्रतिभा के हिसाब से काम लेना चाहिए. साथ ही जिसको पसंद करते हैं उन पर ज्यादा ही मेहरबान हो जाते हैं. मसलन, कभी बेनी प्रसाद वर्मा को पसंद किया तो उन पर लगातार मेहरबान रहे, फिर राजबब्बर और पीएल पुनिया पर. साल 2014 में हारने के बाद भी राज्यसभा की सीट दी, राजबब्बर को यूपी अध्यक्ष बनाया, फिर पहले मुरादाबाद उसके बाद फतेहपुर सीकरी सीट चुनने की छूट भी दी. पीएल पुनिया खुद राज्यसभा सांसद बने और उनके बेटे को लोकसभा टिकट मिला. वहीं बीजेपी से कांग्रेस में आए नाना पटोले को पहले किसान कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया फिर नागपुर से टिकट भी मिला.

10. राहुल की टीम सियासी नहीं इसलिए मुद्दों को पकड़ने में और जमीन पर उसके सफल होने या असफल होने का सही फीडबैक राहुल को नहीं मिल पाता. जैसे- चौकीदार चोर है, जमीन पर नहीं चल रहा था. उत्साह और राहुल की एनर्जी के चलते कांग्रेस की रैलियों में ही आवाज गूंजती थी, जिसे राहुल सफलता समझ रहे थे. वहीं बालाकोट जैसे मुद्दों पर कांग्रेस पिछड़ रही थी. इसका ख्याल भी राहुल या उनकी टीम नहीं लगा पाई. साथ ही सैम पित्रोदा और मणिशंकर अय्यर जैसे गांधी परिवार के करीबी नेताओं के बयान पार्टी को नुकसान देते रहे. लेकिन राहुल बेचारे बने रह गए. कैप्टन अमरिंदर के मुकाबले सिद्धू को तरजीह दी जाती रही, जिनके बयान पार्टी को लगातार नुकसान देते रहे.

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