ऐसा है शिवलिंग का रहस्य, इसलिए जल चढ़ाने का है विधान

महादेव की आराधना किसी भी रूप में की जाए हमेशा शुभ फलदायी होती है। भोलेनाथ की लिंग स्वरूप में पूजा का ज्यादा विधान है। मान्यता है कि महादेव की लिंग रूप में पूजा करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। पृथ्वीलोक में बारह ज्योतिर्लिंग लिंग स्वरूप में विराजमान है। इसके अलावा धरती में खास जगहों पर महादेव स्वयंभू शिवलिंग के रूप मे विराजमान है, तो कई जगहों पर भक्तों ने विधि-विधान से शिवलिंग की स्थापना की है।

शिवलिंग को शिव का निराकार स्वरूप माना जाता है। इसलिए शिवभक्त लिंग को भगवान शंकर मानकर पूजा करते हैं। सभी देवताओं में सिर्फ महादेव की लिंग रूप में पूजा करने का विधान है। इस संबंध में शास्त्रों में अलग-अलग मान्यताएं और कथाएं प्रचलित हैं।

ऐसा है शिवलिंग का रहस्य

शास्त्रों के अनुसार शिवलिंग ब्रह्मांड का स्वरूप है। शिवलिंग को शिव और शक्ति का संगम भी माना जाता है अर्थात इसमें महादेव और पार्वती दोनों समाहित है। लिग रूप में शिव तो जलाधारी के रूप में देवी पार्वती है। इसलिए शिवलिंग से प्रकृति के सामंजस्य का संदेश मिलता है। शिवलिंग में स्त्री और पुरूष दोनों का संगम कर प्रकृति के समन्वय का संदेश दिया गया है।

वेदों में है शिवलिंग का उल्लेख

वेदों में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है। इसके अनुसार सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से मिलकर बना है। । मन, बुद्धि, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और पांच वायु। वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और फिर से सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है उसको लिंग कहते हैं। इस तरह समस्त विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है।

शिव पुराण में शिवलिंग

शिव पुराण के अनुसार शिव संसार की उत्पत्ति के कारण और परब्रह्म भी है। इसके अनुसार भगवान शिव निराकार ब्रह्म हैं। इसी के प्रतीकात्मक रूप में शिव के लिंग की पूजा का विधान है। यह भी मान्यता है भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता के विवाद को सुलझाने के लिए एक दिव्य लिंग प्रकट किया था। इस लिंग के आदि और अंत की खोज करते हुए ब्रह्मा और विष्णु को शिव के परब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हुआ। तभी से शिव को परब्रह्म मानते हुए उनके प्रतीक रूप में लिंग की पूजा आरंभ हुई।

पौराणिक कथा में शिवलिंग

समुद्र मंथन के समय भगवान शिव ने मंथन से निकले हलाहल विष का पान किया था। यह विष बेहद खतरनाक था इसलिए इसको शिव ने अपने कण्ठ में धारण किया था और नीलकंठ कहलाए। विष के प्रभाव से शिव के शरीर में गर्मी बढ़ गई। इस गर्मी को शांत करने के लिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई।

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